Wednesday, December 23, 2009

छायाओं में भटकता संसार

ये जो छायाएं हैं बेसुमार भटक रही हैं और भटका रही हैं समूची मानव जाती को, लेकिन मनुष्य सोचता है की वो योजनागत विकास कर रहा है, संसय बरकरार है, किहमारी मंजिल क्या है फिर भी हम चले जा रहे हैं ये अजीब सी धुंध है जो हमें कुछ देखने ही नहीं देती , फिर भी हम जा रहे हैं,
दोस्तों ये धुंध जब तक हमारे सामने जालफैलाये हुए है तब तक हम सही रह पर न चल सकेंगे फिर भी चलाना तो है ही इसलिए हमें दीप जलाने कि आवश्यकता है, ये दीप अपने अंदर ही जलना होगा, संसार तुम्हारे स्वागत को तैयार खड़ा है, ये रौशनी का संसार प्यार का संसार हमें अपनी बाँहों में लेने को आतुर है आओ मिलकर दीप जलाएं अपने जीवन को कृतार्थ बनायें
मनोज अनुरागी

ये जो रास्ते हैं

कितना कठिन है अभिव्यक्ति का यह व्याकरण
तुमने सजाया ही कहाँ अब तक ह्रदय वातावरण
कहीं ऐसा न हो वैसा न हो संशय उठाये आपने
बिन प्रश्न ही उत्तर दिए बैठे बिठाये आपने
शून्य में सब खो गए तुमने दिए जो उदहारण
मनोज अनुरागी