स्मार्ट सिटी में होगा मलिन बस्तियों का राज
जब अरबपति लोग सरकारी जमीनों को कब्जा करके आलीशान फ्लैट, माॅल, रेस्तरां और आवास तक बना रहे हैं तो फिर गरीबों को सर छुपाने के लिए जगह क्यों नहीं मिलनी चाहिए।
एक ओर मोदी सरकार देश में अधिकतर शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की योजना बना रही है और कई शहरों को स्मार्ट बनाने के लिए चुन भी लिया गया है। वहीं हमारे देश के नेता और अधिकारी इन शहरों को मलिन बस्तियों के लिए आरक्षित करना चाहते हैं। अभी-अभी उत्तराखण्ड सरकार ने कुछ ऐसे ही निर्णय लिये हैं जिनमें मलिन बस्तियों को मालिकाना हक देने की बात कही जा रही है। इससे पहले पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के दबाव में आकर मुख्यमंत्री ने कब्जाधारी लोगों को मालिकाना हक देने का निर्णय लिया है, जिससे राज्य के कई क्षेत्रों में जमीन के कब्जेदारों को मालिकाना हक मिलने की उम्मीद जागी है। इस निर्णय से राज्य के कई हिस्सों में वन विभाग की जमीनों पर किये गये कब्जों को वैद्यता प्राप्त हो जायेगी, तो वहीं देश के बाहर से आए हुए लोगों को मूल निवासी का दर्जा मिलेगा और वह यहां के मालिकाना हक वाले नागरिक बन जायेंगे। देहरादून शहर जो कि पिछले पचास वर्षों से देश के शान्तिपूर्ण लोगों के लिए आकर्षण बना रहा था, कि जहां पर आकर एक छोटा सा आशियाना बनाकर वह शान्ति से जीवन यापन कर सकते थे, पिछले पन्द्रह वर्षों में वह आकर्षण तो गया ही लेकिन अब तो आम आदमी का भी यहां पर जीना मुहाल हो गया है। राज्य की राजधानी बनते ही नेता-अधिकारी और माफियाओं ने पूरे शहर की शान्ति को ग्रहण गला दिया है। यही नहीं शहर के निकटवर्ती गांवों की खुशहाली भी उसने डस ली है। अवैधप्लांटिंग के सहारे पूरे शहर को मलिन बस्ती में तब्दील कर दिया है। बड़े-बड़े माॅल निगम और अन्य सरकारी जमीनों का कब्जा करके खड़े कर दिये गये हैं, वहीं नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों को अनधिकृत बस्तियों के रूप में विकसित कर दिया गया है।
अभी हाल ही में सरकार के एक सभा सचिव ने यह घोषणा की है कि वह देहरादून की मलिन बस्तिायों के निवासियों को मालिकाना हक दिलायेंगे। और यह हक उन्हें मिलना भी चाहिए। क्योंकि जब अरबपति लोग सरकारी जमीनों को कब्जा करके आलीशान फ्लैट, माॅल, रेस्तरां और आवास तक बना रहे हैं तो फिर गरीबों को सर छुपाने के लिए जगह क्यों नहीं मिलनी चाहिए। सदियों से ऐसा होता रहा है कि अमीरों का अधिकार क्षेत्र निर्विवाद रहा है जबकि गरीबों के अधिकारों को कुचला जाता रहा है। अमीर लोग गरीबों के कंधों पर पैर रखकर आगे बढ़े और गरीबों को उनके पैरों तले की जमीन भी गंवानी पड़ी। उन्हें लिे नदियों के बहते हुए किनारे, कूड़े के ढ़ेर और फुटपाथ। जहां उनके बच्चे कीटाणुओं से लड़ते झगड़ते किसी तरह आधे-अधूरे बड़े हुए और फिर से अमीरो के हथियार बने। नेताओं ने उनके बल पर आन्दोलन किये, अमीरों ने फैक्ट्रियां चलाईं, अधिकारियों ने अपने नौकर खोजे और माफियाओं ने गुंडे। सारे रसूखदारों के लिए इन्हीं मलिन बस्तियों के बच्चे काम आए। आखिर यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें लोक को केवल प्रयोग किया जाता है, उसे जीवन जीने के बुनियादी अधिकार तक नहीं दिये जाते हैं? कहने को संविधान उन्हें इज्जत की रोटी देने का वचन देता है, लेकिन इज्जत तो बहुत दूर की बात है उन्हें रोटी तक नसीब नहीं होती है। उनके लिए रहने को छत नहीं होती, पढ़ने को विद्यालय नहीं होते हैं, शौचालय नहीं होते। सरकार उनके लिए कुछ योजनाएं चलाती तो है लेकिन उन योजनाओं को उनके अधिकारी ही खा जाते हैं। इनकी बस्तियों में कीड़े-मकोड़े की तरह आदमी पलते हैं और बड़े होकर बड़ों के मोहरे बनते हैं।
अब अगर कोई स्मार्ट सिटी बस रही है, तो सबसे पहले उन्हें इन्हीं बस्तियों की ओर रुख करना चाहिए। उत्तराखण्ड सरकार के एक विधायक अपनी जमीन बचाये रखने के लिए ही सही इन गरीबों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए दिखाई दे रहे ैहैं इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। उनसे अधिक इन बस्तियों की पीड़ा शायद ही कोई समझ सकता है। क्योंकि वह स्वयं भुक्तभोगी रहे हैं। आज वह लड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं तो हम सभी मलिन बस्तियों के महामानवों से अपील करते हैं कि उनके इस आन्दोलन में उनके साथ खड़े हों। जीवन का अधिकार और इज्जत की रोटी सबका संवैधानिक अधिकार ही नहीं है, वरन परमात्मा के मौलिक जीवन के अधिकार क्षेत्र में भी आता है।
जब अरबपति लोग सरकारी जमीनों को कब्जा करके आलीशान फ्लैट, माॅल, रेस्तरां और आवास तक बना रहे हैं तो फिर गरीबों को सर छुपाने के लिए जगह क्यों नहीं मिलनी चाहिए।
एक ओर मोदी सरकार देश में अधिकतर शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की योजना बना रही है और कई शहरों को स्मार्ट बनाने के लिए चुन भी लिया गया है। वहीं हमारे देश के नेता और अधिकारी इन शहरों को मलिन बस्तियों के लिए आरक्षित करना चाहते हैं। अभी-अभी उत्तराखण्ड सरकार ने कुछ ऐसे ही निर्णय लिये हैं जिनमें मलिन बस्तियों को मालिकाना हक देने की बात कही जा रही है। इससे पहले पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के दबाव में आकर मुख्यमंत्री ने कब्जाधारी लोगों को मालिकाना हक देने का निर्णय लिया है, जिससे राज्य के कई क्षेत्रों में जमीन के कब्जेदारों को मालिकाना हक मिलने की उम्मीद जागी है। इस निर्णय से राज्य के कई हिस्सों में वन विभाग की जमीनों पर किये गये कब्जों को वैद्यता प्राप्त हो जायेगी, तो वहीं देश के बाहर से आए हुए लोगों को मूल निवासी का दर्जा मिलेगा और वह यहां के मालिकाना हक वाले नागरिक बन जायेंगे। देहरादून शहर जो कि पिछले पचास वर्षों से देश के शान्तिपूर्ण लोगों के लिए आकर्षण बना रहा था, कि जहां पर आकर एक छोटा सा आशियाना बनाकर वह शान्ति से जीवन यापन कर सकते थे, पिछले पन्द्रह वर्षों में वह आकर्षण तो गया ही लेकिन अब तो आम आदमी का भी यहां पर जीना मुहाल हो गया है। राज्य की राजधानी बनते ही नेता-अधिकारी और माफियाओं ने पूरे शहर की शान्ति को ग्रहण गला दिया है। यही नहीं शहर के निकटवर्ती गांवों की खुशहाली भी उसने डस ली है। अवैधप्लांटिंग के सहारे पूरे शहर को मलिन बस्ती में तब्दील कर दिया है। बड़े-बड़े माॅल निगम और अन्य सरकारी जमीनों का कब्जा करके खड़े कर दिये गये हैं, वहीं नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों को अनधिकृत बस्तियों के रूप में विकसित कर दिया गया है।
अभी हाल ही में सरकार के एक सभा सचिव ने यह घोषणा की है कि वह देहरादून की मलिन बस्तिायों के निवासियों को मालिकाना हक दिलायेंगे। और यह हक उन्हें मिलना भी चाहिए। क्योंकि जब अरबपति लोग सरकारी जमीनों को कब्जा करके आलीशान फ्लैट, माॅल, रेस्तरां और आवास तक बना रहे हैं तो फिर गरीबों को सर छुपाने के लिए जगह क्यों नहीं मिलनी चाहिए। सदियों से ऐसा होता रहा है कि अमीरों का अधिकार क्षेत्र निर्विवाद रहा है जबकि गरीबों के अधिकारों को कुचला जाता रहा है। अमीर लोग गरीबों के कंधों पर पैर रखकर आगे बढ़े और गरीबों को उनके पैरों तले की जमीन भी गंवानी पड़ी। उन्हें लिे नदियों के बहते हुए किनारे, कूड़े के ढ़ेर और फुटपाथ। जहां उनके बच्चे कीटाणुओं से लड़ते झगड़ते किसी तरह आधे-अधूरे बड़े हुए और फिर से अमीरो के हथियार बने। नेताओं ने उनके बल पर आन्दोलन किये, अमीरों ने फैक्ट्रियां चलाईं, अधिकारियों ने अपने नौकर खोजे और माफियाओं ने गुंडे। सारे रसूखदारों के लिए इन्हीं मलिन बस्तियों के बच्चे काम आए। आखिर यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें लोक को केवल प्रयोग किया जाता है, उसे जीवन जीने के बुनियादी अधिकार तक नहीं दिये जाते हैं? कहने को संविधान उन्हें इज्जत की रोटी देने का वचन देता है, लेकिन इज्जत तो बहुत दूर की बात है उन्हें रोटी तक नसीब नहीं होती है। उनके लिए रहने को छत नहीं होती, पढ़ने को विद्यालय नहीं होते हैं, शौचालय नहीं होते। सरकार उनके लिए कुछ योजनाएं चलाती तो है लेकिन उन योजनाओं को उनके अधिकारी ही खा जाते हैं। इनकी बस्तियों में कीड़े-मकोड़े की तरह आदमी पलते हैं और बड़े होकर बड़ों के मोहरे बनते हैं।
अब अगर कोई स्मार्ट सिटी बस रही है, तो सबसे पहले उन्हें इन्हीं बस्तियों की ओर रुख करना चाहिए। उत्तराखण्ड सरकार के एक विधायक अपनी जमीन बचाये रखने के लिए ही सही इन गरीबों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए दिखाई दे रहे ैहैं इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। उनसे अधिक इन बस्तियों की पीड़ा शायद ही कोई समझ सकता है। क्योंकि वह स्वयं भुक्तभोगी रहे हैं। आज वह लड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं तो हम सभी मलिन बस्तियों के महामानवों से अपील करते हैं कि उनके इस आन्दोलन में उनके साथ खड़े हों। जीवन का अधिकार और इज्जत की रोटी सबका संवैधानिक अधिकार ही नहीं है, वरन परमात्मा के मौलिक जीवन के अधिकार क्षेत्र में भी आता है।