Friday, January 22, 2010

परेशां उत्तराखंड

हम सब जानते हैं की उत्तराखंड का निर्माण किन परिस्थितियों की वजह से हुआ था। पहाड़ की पीड़ा मैदान नहीं समझ सकता है। क्योंकि पहाड़ का अपना स्वाभाव होता है और मैदान का अपना। पहाड़ का आदमी प्रकृति के निकट होता है और ह्रदय का अति सहज। जबकि मैदान का आदमी जटिल और अति जागरूक होता है। इसलिए मैदान को शोषण करना आता है और पहाड़ को सिर्फ देना और शोषित होना आता है, पहाड़ शोषित था इसलिए पहाड़ ने अपने को अलग करना ही बेहतर समझा, वो अलग हुआ अपनी सहजता के साथ अपने प्रकृति प्रेम के साथ लेकिन दुर्भाग्य ने उसका साथ नहीं छोड़ा। अब उसके अपने ही लोगों ने उसे पददलित करना आरम्भ कर दिया देहरादून, हरद्वार, हल्द्वानी, जैसे शहर पहले ही मैदानी चतुरों से भरे पड़े थे और सदियों से ये लोग पहाड़ को लूटते रहे हैं। अब हमारे अपने लोग यानि पहाड़ के नेता लोग मैदान के बहुत से छेत्रों को उत्तराखंड में मिलाने की बात कर रहे हैं, जिससे मैदान के व्यापारियों को लाभ पहुँचाया जा सके। अभी तक जिनके शोषण ने पहाड़ को निचोड़ डाला है अब हमारे पहाड़ ने नेता उत्तराखंड को फिर से मैदानियों को लूटने के लिए सौंप देना चाहते हैं। उत्तराखंड के लिए कोई स्पष्ट नीति हमारे नेताओं के पास नहीं है वो एक अंधी गली में भटक रहे हैं, पहले सव्मी नित्यानंद फिर भगत सिंह कोश्यारी, और अनुभवी नारायण दत्त तिवारी जिन्होंने राज्य को बरबादी के लालची रस्ते पर ला खड़ा किया, सबको खुश करने के चक्कर में ऐसी परंपरा दल दी जिससे जो भी आयगा उसे ही उस परिपाटी से रूबरू होना पड़ेगा, जब भुवन चंद खंडूरी ने सत्ता संभाली तो उन्हें तिवारी जी के बोये हुए बीजों के पेड़ मिले जिन्हें उखड पाना उनके लिए आसन नहीं हो सका उनहोंने प्रयास किये तो उनकी ही पार्टी के लोगों ने उन्हें बहार का रास्ता दिखा दिया, क्योंकि उन्हें वो नहीं मिला जो तिवारीजी नेउन्हें दिया था । अब तो लूट मार होनी थी सो नेताओं को खंडूरी जी बिलकुल नहीं भाये , सत्ता परिवर्तन हुआ माननीय निशंक्जी ने सत्ता सम्हाली इनको पता था की नेता क्या चाहते हैं, उन्हें भी जनता और पहाड़ से कोई लेना देना न था उन्होंने वाही किया जो नेता चाहते हैं, नेता अपना घर भरना चाहते हैं जनता और राज्य जाए भाद्द में, अब राज्य का आम आदमी सदमें में है। वो समझ नहीं पा रहा है की ये क्या हो रहा है, सहज और सरल पहाड़ का आदमी अब अचानक चतुर कैसे हो गया है, ये चतुर हो गया है या फिर ये लोग मैदानियों के हाथों की कठपुतलियां बन गए हैं ? क्या हमारे नेता पहाड़ को भी बेचकर खा जायेंगे ? बल्कि खा ही रहे हैं , आन्दोलनकारी आशार्यजनक रूप से इनके साथ हो गए हैं, अब राज्य का क्या होगा? जागो, राज्य के पहरेदारों जागो अब समय नहीं है सोने का, इस राज्य को बचा लो , पहाड़ को बचा लो , पहाड़ बचेगा तो ही देश बचेगा, तो ही संसार बचेगा।
मनोज अनुरागी

Wednesday, December 23, 2009

छायाओं में भटकता संसार

ये जो छायाएं हैं बेसुमार भटक रही हैं और भटका रही हैं समूची मानव जाती को, लेकिन मनुष्य सोचता है की वो योजनागत विकास कर रहा है, संसय बरकरार है, किहमारी मंजिल क्या है फिर भी हम चले जा रहे हैं ये अजीब सी धुंध है जो हमें कुछ देखने ही नहीं देती , फिर भी हम जा रहे हैं,
दोस्तों ये धुंध जब तक हमारे सामने जालफैलाये हुए है तब तक हम सही रह पर न चल सकेंगे फिर भी चलाना तो है ही इसलिए हमें दीप जलाने कि आवश्यकता है, ये दीप अपने अंदर ही जलना होगा, संसार तुम्हारे स्वागत को तैयार खड़ा है, ये रौशनी का संसार प्यार का संसार हमें अपनी बाँहों में लेने को आतुर है आओ मिलकर दीप जलाएं अपने जीवन को कृतार्थ बनायें
मनोज अनुरागी

ये जो रास्ते हैं

कितना कठिन है अभिव्यक्ति का यह व्याकरण
तुमने सजाया ही कहाँ अब तक ह्रदय वातावरण
कहीं ऐसा न हो वैसा न हो संशय उठाये आपने
बिन प्रश्न ही उत्तर दिए बैठे बिठाये आपने
शून्य में सब खो गए तुमने दिए जो उदहारण
मनोज अनुरागी

Monday, September 21, 2009

Tuesday, September 1, 2009

bhajapa ki dhundh

मित्रों आज हम देख रहे हैं की भाजपा एक अंतर्द्वंद से गुजर रही है ओर ये द्वंद भाजपा का ही नहीं है, ये तो उसके जन्मदाता संघ में भी है। क्योंकि अब समाज ने जो करवट बदली है, उसे समझ पाने में वो भी असमर्थ हो रहा है, क्योंकि उनकी सोच में ही कहीं न कहीं गड़बड़ झाला है, और ये जीवन जिसे हम सनातनी अजस्र प्रवाह कहते हैं। ये एक नदी की तरह है, लेकिन संसार ने अब इसके प्रवाह में कई अवरोध खड़े कर दिए हैं। जनसँख्या और उपभोक्तावाद के दबाव ने जीवन से वो सोच छीन ली है, जिससे जीवन में सौंदर्य आता था संघ के लोग अब भी दावा करते हैं की वो अपनी सोच के आधार पर ही समाज को बदल देंगे लेकिन समय कहता है की अब उन्हें बदलना होगा संघ के कुछ लोग तो स्वीकार करते हैं की जब तक जातिरुपी बुराईको मिटाया नहीं जाता तब तक देश को एक सूत्र में नही बंधा जा सकता है, लेकिन संघ कहता है, की वो किसी जाति को नहीं मानता लेकिन उसके पदाधिकारी बिना जाति संवोधन के रह नहीं पतेकैसे मिटेगा ये कलंक। जब तक आप समाज की नब्ज को ही नहीं समझ पाएंगे तब तक समाज के लिए कुछ करने की बात ही बेमानी है संघ की जो मुस्किल है वाही भाजपा की है समाज की नब्ज को समझना होगा उनके लिए कुछ करो न करो पर दिखाना होगा की तुम उनके लिए कुछ कर रहे हो,
लेकिन मुश्किल है, की भाजपा ही नहीं उसके आस पास के संगठन भी इसी पसोपेश में हैं समझ ही नहीं प् रहे की करें क्या समाज के बीच जाओ काम करो पसीना बहाओ फ़िर कुछ मिलेगा ,
अनुरागी धुंध prakash

Friday, August 21, 2009

अभी तक धुंध नहीं छटी

मित्रो देश कालओर परिस्थिति ये चीख चीख कर कह रही है किधुंध छंटने कि जगह बढती जा रही है एक दिन किसी ने कहा कि हमारे यहाँ यानि उत्तराखंड में साहित्यकार मुखिया बना है, उनके अंदर संवेदना है कुछ हालत बदलेंगे लेकिन अगले ही दिन कुछ लोग कहने लगे कि छद्म साहित्यकार हैं कोई राजनीतिज्ञ साहित्यकार नहीं हो सकता उसके अंदर संवेदना होगी भी तो राजनीती कि भेंट चढ़ चुकी होगी , फ़िर पिथोरागढ़ में बादल फट गए समस्या ओरगहरी हो गई विपछ तो तैयार ही था चिल्लाने लगा , कुदरत कि मार फ़िर विरोधियों की धार फ़िर भी सब चलता है, धुंध कम नहीं हुई अबकी बार तो जो मुखिया की दौड़ में थे दोनों ही साहित्यकार थे , माननीय निशंक जी ओर माननीय पन्त जी संवेदना के धनि दोनों ही लेकिन विद्वान् कहते हैं किसंवेदनाओं से राज नहीं चलते , अब कौन चलाये हम आपसे पूछते हैं कि कौन चलाये , बहुत दिनों से बड़ी पोस्ट भेजने का अवसर नहीं मिल रहा छमा करना व्यवधान गया फ़िर मिलेंगे
आपका अनुरागी

Wednesday, June 24, 2009

सांसो से सांसों का रिश्ता

बहुत दूर तक देखो हमारी सांसों का एहसास बड़ी सिद्दत से महसूस करोगे , दोस्तों ये दुनिया जिसे कुछ लोग भ्रम कहते हैं, और कुछ लोग इसे उपभोग समझाते हैं, लेकिन जीवन ब्रहमांड और प्रकृति कैसे आपस में गुंथे हुए हैं, इसे समझने के लिए अपने अंदर जगानी है संवेदनाओं की प्यास अनुभूतियों की भूख और हमारा साथ, हमारे से तात्पर्य साहित्य और अध्यात्म,
मनोज अनुरागी