बहुत दिन बाद आया हु बहुत सारी चरचाए है, उत्तराखण्ड की आपदा ने पूरे देश को हिला दिया, सोचने को विवश कर दिया. लेकिन फ़िर भी समाज अपनी गति मे कोई परिवर्र्तन लाने को कटिबध दिखाई नही देता. फ़िर वही चर्चा, जिस दिन से आपदा आई है उसी दिन से मुखिया बद्ल्ने की चर्चा आखिर राज्य को किधर ले जा रहे है, ये ठीक नही है, जो नेता नेता ही न हो उस्के हाथो मे रज्य की कमान देना बहुत बडा अन्याय है. सब आपस मे ही लड्ते रहेगे तो रज्य वसियो क क्या होगा.
Tuesday, October 1, 2013
Tuesday, March 13, 2012
Monday, August 8, 2011
आज फिर तुम याद आये
कहते हैं तेरे बारे में जब सोचा नहीं था मै तन्हां था मगर इतना नहीं था। किसी शायर की ये गजल वास्तव में कब चुपके से अंतर में उतर जाती है पता ही नहीं चलता। जब तक अपने बारे में, परमात्मा के बारे में सोचा नहीं था इतना परेशां न था। जबसे अपने और परमात्मा के बारे में सोचने लगा, एसा लगा की मैं बिलकुल अकेला हो गया हूँ, ये भीड़ जो हमारे आस पास दिखाई दे रही है, कितनी सुनसान और बेजान सी है, कौन जाने हम कहाँ आ गए हैं ये सन्नाटों की भीड़ मन को कितना विचलित कर देती है, ये इतने अच्छे लोग कहाँ जा रहे हैं। सब कुछ है लेकिन मैं नहीं हूँ आप सोच रहे होंगे ये कैसे ह सकता है। मैं स्वयं सोच रहा हु की ये कैसे हो सकता है, लेकिन ऐसा है। आत्म पथ ही अजीब है, हमारे साथ घट रहा है, मैं जान रहा हूँ, संसार में सार तो बहुत है, लेकिन हम ही भटक गये शायद , पुस्तकें और अनुभवी कहते हैं की सार ही परमात्मा है उसके अतिरिक्त कोई सार नहीं मैं अब सोच नहीं पाता हूँ कुछ और सोचता हूँ परमात्मा और अपना अंतर ही मेरे सामने आ खड़ा होता है, जैसे कोई झरना फूट पड़ता है, कितने शिखर हैं हमारे अंतर में और किस शिखर से फूटा है ये झरना पता ही नहीं चलता है। लेकिन सब कुछ उसकी धुन में , उसके बहाव में, संगीतमय हो जाता है, मैं न जाने कहाँ खो जाता हूँ और संसार न जाने कहाँ छुट जाता है। मित्रों क्या तुम्हें भी ऐसा होता है,
फिर मिलेंगे
मनोज अनुरागी
फिर मिलेंगे
मनोज अनुरागी
Saturday, May 28, 2011
आज हम आये थे
सांसों को बहुत समझाया
बहुत दूर तक
मेरे साथ चलना
पर वो नहीं मानी
टूटकर बिखर गईं
मेरे ही सीने पर
मेरे स्नेह से लिपटी हुई
मेरी सुंदर गुडिया सी
समेत लेता मै लेकिन
न जाने कहाँ से
सख्ची भाव कुछ जागा
और मै देखता रहा उस प्रणय यौवन को
अहर्निश ----
पर आश्चर्य कुछ दिखाई न दिया
हमारे जिन्दा होने का सबूत मिट gaya
फिर भी लोग पूछते हैं
कैसे हो ......
बहुत दूर तक
मेरे साथ चलना
पर वो नहीं मानी
टूटकर बिखर गईं
मेरे ही सीने पर
मेरे स्नेह से लिपटी हुई
मेरी सुंदर गुडिया सी
समेत लेता मै लेकिन
न जाने कहाँ से
सख्ची भाव कुछ जागा
और मै देखता रहा उस प्रणय यौवन को
अहर्निश ----
पर आश्चर्य कुछ दिखाई न दिया
हमारे जिन्दा होने का सबूत मिट gaya
फिर भी लोग पूछते हैं
कैसे हो ......
Friday, January 22, 2010
परेशां उत्तराखंड
हम सब जानते हैं की उत्तराखंड का निर्माण किन परिस्थितियों की वजह से हुआ था। पहाड़ की पीड़ा मैदान नहीं समझ सकता है। क्योंकि पहाड़ का अपना स्वाभाव होता है और मैदान का अपना। पहाड़ का आदमी प्रकृति के निकट होता है और ह्रदय का अति सहज। जबकि मैदान का आदमी जटिल और अति जागरूक होता है। इसलिए मैदान को शोषण करना आता है और पहाड़ को सिर्फ देना और शोषित होना आता है, पहाड़ शोषित था इसलिए पहाड़ ने अपने को अलग करना ही बेहतर समझा, वो अलग हुआ अपनी सहजता के साथ अपने प्रकृति प्रेम के साथ लेकिन दुर्भाग्य ने उसका साथ नहीं छोड़ा। अब उसके अपने ही लोगों ने उसे पददलित करना आरम्भ कर दिया देहरादून, हरद्वार, हल्द्वानी, जैसे शहर पहले ही मैदानी चतुरों से भरे पड़े थे और सदियों से ये लोग पहाड़ को लूटते रहे हैं। अब हमारे अपने लोग यानि पहाड़ के नेता लोग मैदान के बहुत से छेत्रों को उत्तराखंड में मिलाने की बात कर रहे हैं, जिससे मैदान के व्यापारियों को लाभ पहुँचाया जा सके। अभी तक जिनके शोषण ने पहाड़ को निचोड़ डाला है अब हमारे पहाड़ ने नेता उत्तराखंड को फिर से मैदानियों को लूटने के लिए सौंप देना चाहते हैं। उत्तराखंड के लिए कोई स्पष्ट नीति हमारे नेताओं के पास नहीं है वो एक अंधी गली में भटक रहे हैं, पहले सव्मी नित्यानंद फिर भगत सिंह कोश्यारी, और अनुभवी नारायण दत्त तिवारी जिन्होंने राज्य को बरबादी के लालची रस्ते पर ला खड़ा किया, सबको खुश करने के चक्कर में ऐसी परंपरा दल दी जिससे जो भी आयगा उसे ही उस परिपाटी से रूबरू होना पड़ेगा, जब भुवन चंद खंडूरी ने सत्ता संभाली तो उन्हें तिवारी जी के बोये हुए बीजों के पेड़ मिले जिन्हें उखड पाना उनके लिए आसन नहीं हो सका उनहोंने प्रयास किये तो उनकी ही पार्टी के लोगों ने उन्हें बहार का रास्ता दिखा दिया, क्योंकि उन्हें वो नहीं मिला जो तिवारीजी नेउन्हें दिया था । अब तो लूट मार होनी थी सो नेताओं को खंडूरी जी बिलकुल नहीं भाये , सत्ता परिवर्तन हुआ माननीय निशंक्जी ने सत्ता सम्हाली इनको पता था की नेता क्या चाहते हैं, उन्हें भी जनता और पहाड़ से कोई लेना देना न था उन्होंने वाही किया जो नेता चाहते हैं, नेता अपना घर भरना चाहते हैं जनता और राज्य जाए भाद्द में, अब राज्य का आम आदमी सदमें में है। वो समझ नहीं पा रहा है की ये क्या हो रहा है, सहज और सरल पहाड़ का आदमी अब अचानक चतुर कैसे हो गया है, ये चतुर हो गया है या फिर ये लोग मैदानियों के हाथों की कठपुतलियां बन गए हैं ? क्या हमारे नेता पहाड़ को भी बेचकर खा जायेंगे ? बल्कि खा ही रहे हैं , आन्दोलनकारी आशार्यजनक रूप से इनके साथ हो गए हैं, अब राज्य का क्या होगा? जागो, राज्य के पहरेदारों जागो अब समय नहीं है सोने का, इस राज्य को बचा लो , पहाड़ को बचा लो , पहाड़ बचेगा तो ही देश बचेगा, तो ही संसार बचेगा।
मनोज अनुरागी
Wednesday, December 23, 2009
छायाओं में भटकता संसार
ये जो छायाएं हैं बेसुमार भटक रही हैं और भटका रही हैं समूची मानव जाती को, लेकिन मनुष्य सोचता है की वो योजनागत विकास कर रहा है, संसय बरकरार है, किहमारी मंजिल क्या है फिर भी हम चले जा रहे हैं ये अजीब सी धुंध है जो हमें कुछ देखने ही नहीं देती , फिर भी हम जा रहे हैं,
दोस्तों ये धुंध जब तक हमारे सामने जालफैलाये हुए है तब तक हम सही रह पर न चल सकेंगे फिर भी चलाना तो है ही इसलिए हमें दीप जलाने कि आवश्यकता है, ये दीप अपने अंदर ही जलना होगा, संसार तुम्हारे स्वागत को तैयार खड़ा है, ये रौशनी का संसार प्यार का संसार हमें अपनी बाँहों में लेने को आतुर है आओ मिलकर दीप जलाएं अपने जीवन को कृतार्थ बनायें
मनोज अनुरागी
दोस्तों ये धुंध जब तक हमारे सामने जालफैलाये हुए है तब तक हम सही रह पर न चल सकेंगे फिर भी चलाना तो है ही इसलिए हमें दीप जलाने कि आवश्यकता है, ये दीप अपने अंदर ही जलना होगा, संसार तुम्हारे स्वागत को तैयार खड़ा है, ये रौशनी का संसार प्यार का संसार हमें अपनी बाँहों में लेने को आतुर है आओ मिलकर दीप जलाएं अपने जीवन को कृतार्थ बनायें
मनोज अनुरागी
ये जो रास्ते हैं
कितना कठिन है अभिव्यक्ति का यह व्याकरण
तुमने सजाया ही कहाँ अब तक ह्रदय वातावरण
कहीं ऐसा न हो वैसा न हो संशय उठाये आपने
बिन प्रश्न ही उत्तर दिए बैठे बिठाये आपने
शून्य में सब खो गए तुमने दिए जो उदहारण
मनोज अनुरागी
तुमने सजाया ही कहाँ अब तक ह्रदय वातावरण
कहीं ऐसा न हो वैसा न हो संशय उठाये आपने
बिन प्रश्न ही उत्तर दिए बैठे बिठाये आपने
शून्य में सब खो गए तुमने दिए जो उदहारण
मनोज अनुरागी
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