कहते हैं तेरे बारे में जब सोचा नहीं था मै तन्हां था मगर इतना नहीं था। किसी शायर की ये गजल वास्तव में कब चुपके से अंतर में उतर जाती है पता ही नहीं चलता। जब तक अपने बारे में, परमात्मा के बारे में सोचा नहीं था इतना परेशां न था। जबसे अपने और परमात्मा के बारे में सोचने लगा, एसा लगा की मैं बिलकुल अकेला हो गया हूँ, ये भीड़ जो हमारे आस पास दिखाई दे रही है, कितनी सुनसान और बेजान सी है, कौन जाने हम कहाँ आ गए हैं ये सन्नाटों की भीड़ मन को कितना विचलित कर देती है, ये इतने अच्छे लोग कहाँ जा रहे हैं। सब कुछ है लेकिन मैं नहीं हूँ आप सोच रहे होंगे ये कैसे ह सकता है। मैं स्वयं सोच रहा हु की ये कैसे हो सकता है, लेकिन ऐसा है। आत्म पथ ही अजीब है, हमारे साथ घट रहा है, मैं जान रहा हूँ, संसार में सार तो बहुत है, लेकिन हम ही भटक गये शायद , पुस्तकें और अनुभवी कहते हैं की सार ही परमात्मा है उसके अतिरिक्त कोई सार नहीं मैं अब सोच नहीं पाता हूँ कुछ और सोचता हूँ परमात्मा और अपना अंतर ही मेरे सामने आ खड़ा होता है, जैसे कोई झरना फूट पड़ता है, कितने शिखर हैं हमारे अंतर में और किस शिखर से फूटा है ये झरना पता ही नहीं चलता है। लेकिन सब कुछ उसकी धुन में , उसके बहाव में, संगीतमय हो जाता है, मैं न जाने कहाँ खो जाता हूँ और संसार न जाने कहाँ छुट जाता है। मित्रों क्या तुम्हें भी ऐसा होता है,
फिर मिलेंगे
मनोज अनुरागी
Monday, August 8, 2011
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