Sunday, March 1, 2015

स्मार्ट सिटी में होगा मलिन बस्तियों का राज
जब अरबपति लोग सरकारी जमीनों को कब्जा करके आलीशान फ्लैट, माॅल, रेस्तरां और आवास तक बना रहे हैं तो फिर गरीबों को सर छुपाने के लिए जगह क्यों नहीं मिलनी चाहिए।

एक ओर मोदी सरकार देश में अधिकतर शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की योजना बना रही है और कई शहरों को स्मार्ट बनाने के लिए चुन भी लिया गया है। वहीं हमारे देश के नेता और अधिकारी इन शहरों को मलिन बस्तियों के लिए आरक्षित करना चाहते हैं। अभी-अभी उत्तराखण्ड सरकार ने कुछ ऐसे ही निर्णय लिये हैं जिनमें मलिन बस्तियों को मालिकाना हक देने की बात कही जा रही है। इससे पहले पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के दबाव में आकर मुख्यमंत्री ने कब्जाधारी लोगों को मालिकाना हक देने का निर्णय लिया है, जिससे राज्य के कई क्षेत्रों में जमीन के कब्जेदारों को मालिकाना हक मिलने की उम्मीद जागी है। इस निर्णय से राज्य के कई हिस्सों में वन विभाग की जमीनों पर किये गये कब्जों को वैद्यता प्राप्त हो जायेगी, तो वहीं देश के बाहर से आए हुए लोगों को मूल निवासी का दर्जा मिलेगा और वह यहां के मालिकाना हक वाले नागरिक बन जायेंगे। देहरादून शहर जो कि पिछले पचास वर्षों से देश के शान्तिपूर्ण लोगों के लिए आकर्षण बना रहा था, कि जहां पर आकर एक छोटा सा आशियाना बनाकर वह शान्ति से जीवन यापन कर सकते थे, पिछले पन्द्रह वर्षों में वह आकर्षण तो गया ही लेकिन अब तो आम आदमी का भी यहां पर जीना मुहाल हो गया है। राज्य की राजधानी बनते ही नेता-अधिकारी और माफियाओं ने पूरे शहर की शान्ति को ग्रहण गला दिया है। यही नहीं शहर के निकटवर्ती गांवों की खुशहाली भी उसने डस ली है। अवैधप्लांटिंग के सहारे पूरे शहर को मलिन बस्ती में तब्दील कर दिया है। बड़े-बड़े माॅल निगम और अन्य सरकारी जमीनों का कब्जा करके खड़े कर दिये गये हैं, वहीं नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों को अनधिकृत बस्तियों के रूप में विकसित कर दिया गया है।
अभी हाल ही में सरकार के एक सभा सचिव ने यह घोषणा की है कि वह देहरादून की मलिन बस्तिायों के निवासियों को मालिकाना हक दिलायेंगे। और यह हक उन्हें मिलना भी चाहिए। क्योंकि जब अरबपति लोग सरकारी जमीनों को कब्जा करके आलीशान फ्लैट, माॅल, रेस्तरां और आवास तक बना रहे हैं तो फिर गरीबों को सर छुपाने के लिए जगह क्यों नहीं मिलनी चाहिए। सदियों से ऐसा होता रहा है कि अमीरों का अधिकार क्षेत्र निर्विवाद रहा है जबकि गरीबों के अधिकारों को कुचला जाता रहा है। अमीर लोग गरीबों के कंधों पर पैर रखकर आगे बढ़े और गरीबों को उनके पैरों तले की जमीन भी गंवानी पड़ी। उन्हें लिे नदियों के बहते हुए किनारे, कूड़े के ढ़ेर और फुटपाथ। जहां उनके बच्चे कीटाणुओं से लड़ते झगड़ते किसी तरह आधे-अधूरे बड़े हुए और फिर से अमीरो के हथियार बने। नेताओं ने उनके बल पर आन्दोलन किये, अमीरों ने फैक्ट्रियां चलाईं, अधिकारियों ने अपने नौकर खोजे और माफियाओं ने गुंडे। सारे रसूखदारों के लिए इन्हीं मलिन बस्तियों के बच्चे काम आए। आखिर यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें लोक को केवल प्रयोग किया जाता है, उसे जीवन जीने के बुनियादी अधिकार तक नहीं दिये जाते हैं? कहने को संविधान उन्हें इज्जत की रोटी देने का वचन देता है, लेकिन इज्जत तो बहुत दूर की बात है उन्हें रोटी तक नसीब नहीं होती है। उनके लिए रहने को छत नहीं होती, पढ़ने को विद्यालय नहीं होते हैं, शौचालय नहीं होते। सरकार उनके लिए कुछ योजनाएं चलाती तो है लेकिन उन योजनाओं को उनके अधिकारी ही खा जाते हैं। इनकी बस्तियों में कीड़े-मकोड़े की तरह आदमी पलते हैं और बड़े होकर बड़ों के मोहरे बनते हैं।
अब अगर कोई स्मार्ट सिटी बस रही है, तो सबसे पहले उन्हें इन्हीं बस्तियों की ओर रुख करना चाहिए। उत्तराखण्ड सरकार के एक विधायक अपनी जमीन बचाये रखने के लिए ही सही इन गरीबों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए दिखाई दे रहे ैहैं इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। उनसे अधिक इन बस्तियों की पीड़ा शायद ही कोई समझ सकता है। क्योंकि वह स्वयं भुक्तभोगी रहे हैं। आज वह लड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं तो हम सभी मलिन बस्तियों के महामानवों से अपील करते हैं कि उनके इस आन्दोलन में उनके साथ खड़े हों। जीवन का अधिकार और इज्जत की रोटी सबका संवैधानिक अधिकार ही नहीं है, वरन परमात्मा के मौलिक जीवन के अधिकार क्षेत्र में भी आता है।
नाविक
पतवार सहेजो नाविक धीरे,
अब जाना है उस पार-

अभी यह मधुर चाँदनी रात
कल-कल लहरों का साथ
हृदय से झरता प्रेम-प्रपात
हो जाने दो आत्म सात
अभी है दूर प्रभात
होने दो मधुर मिलन बनने दो सौगात।
प्रथम हुआ साक्षात्कार
स्नेहमयी यह सुलभ प्यार
आज फिर हो जाने दो अंगीकार-

प्रथम मिलन की मधुर बात
छुपा है जिसके कण-कण में सुखगात।
जग करता जिसका प्रतिकार
उसी से मिला प्रणय अपार
शशि किरणों का साथ, हृदय उद्गार-

नदी की धारा पर प्रति भार।
जो दूर दिखायी देता है
वह पास हमारे लगता है
हाँ! उसी ओर तो चले जा रहे
यह क्या? प्रतिक्षण उनसे दूर जा रहे
सोच रहे करने आये मेरा सत्कार
नहीं! नहीं!! यह कपट प्यार-
अब जाना है उस पार।

Tuesday, October 1, 2013

ये चरचा है

बहुत दिन बाद आया हु बहुत सारी चरचाए है, उत्तराखण्ड की आपदा ने पूरे देश को हिला दिया, सोचने को विवश कर दिया. लेकिन फ़िर भी समाज अपनी गति मे कोई परिवर्र्तन लाने को कटिबध दिखाई नही देता. फ़िर वही चर्चा, जिस दिन से आपदा आई है उसी दिन से मुखिया बद्ल्ने की चर्चा आखिर राज्य को किधर ले जा रहे है, ये ठीक नही है, जो नेता नेता ही न हो उस्के हाथो मे रज्य की कमान देना बहुत बडा अन्याय है. सब आपस मे ही लड्ते रहेगे तो रज्य वसियो क क्या होगा.  

Monday, August 8, 2011

आज फिर तुम याद आये

कहते हैं तेरे बारे में जब सोचा नहीं था मै तन्हां था मगर इतना नहीं था। किसी शायर की ये गजल वास्तव में कब चुपके से अंतर में उतर जाती है पता ही नहीं चलता। जब तक अपने बारे में, परमात्मा के बारे में सोचा नहीं था इतना परेशां न था। जबसे अपने और परमात्मा के बारे में सोचने लगा, एसा लगा की मैं बिलकुल अकेला हो गया हूँ, ये भीड़ जो हमारे आस पास दिखाई दे रही है, कितनी सुनसान और बेजान सी है, कौन जाने हम कहाँ आ गए हैं ये सन्नाटों की भीड़ मन को कितना विचलित कर देती है, ये इतने अच्छे लोग कहाँ जा रहे हैं। सब कुछ है लेकिन मैं नहीं हूँ आप सोच रहे होंगे ये कैसे ह सकता है। मैं स्वयं सोच रहा हु की ये कैसे हो सकता है, लेकिन ऐसा है। आत्म पथ ही अजीब है, हमारे साथ घट रहा है, मैं जान रहा हूँ, संसार में सार तो बहुत है, लेकिन हम ही भटक गये शायद , पुस्तकें और अनुभवी कहते हैं की सार ही परमात्मा है उसके अतिरिक्त कोई सार नहीं मैं अब सोच नहीं पाता हूँ कुछ और सोचता हूँ परमात्मा और अपना अंतर ही मेरे सामने आ खड़ा होता है, जैसे कोई झरना फूट पड़ता है, कितने शिखर हैं हमारे अंतर में और किस शिखर से फूटा है ये झरना पता ही नहीं चलता है। लेकिन सब कुछ उसकी धुन में , उसके बहाव में, संगीतमय हो जाता है, मैं न जाने कहाँ खो जाता हूँ और संसार न जाने कहाँ छुट जाता है। मित्रों क्या तुम्हें भी ऐसा होता है,
फिर मिलेंगे
मनोज अनुरागी

Saturday, May 28, 2011

आज हम आये थे

सांसों को बहुत समझाया
बहुत दूर तक
मेरे साथ चलना
पर वो नहीं मानी
टूटकर बिखर गईं
मेरे ही सीने पर
मेरे स्नेह से लिपटी हुई
मेरी सुंदर गुडिया सी
समेत लेता मै लेकिन
न जाने कहाँ से
सख्ची भाव कुछ जागा
और मै देखता रहा उस प्रणय यौवन को
अहर्निश ----
पर आश्चर्य कुछ दिखाई न दिया
हमारे जिन्दा होने का सबूत मिट gaya
फिर भी लोग पूछते हैं
कैसे हो ......

Friday, January 22, 2010

परेशां उत्तराखंड

हम सब जानते हैं की उत्तराखंड का निर्माण किन परिस्थितियों की वजह से हुआ था। पहाड़ की पीड़ा मैदान नहीं समझ सकता है। क्योंकि पहाड़ का अपना स्वाभाव होता है और मैदान का अपना। पहाड़ का आदमी प्रकृति के निकट होता है और ह्रदय का अति सहज। जबकि मैदान का आदमी जटिल और अति जागरूक होता है। इसलिए मैदान को शोषण करना आता है और पहाड़ को सिर्फ देना और शोषित होना आता है, पहाड़ शोषित था इसलिए पहाड़ ने अपने को अलग करना ही बेहतर समझा, वो अलग हुआ अपनी सहजता के साथ अपने प्रकृति प्रेम के साथ लेकिन दुर्भाग्य ने उसका साथ नहीं छोड़ा। अब उसके अपने ही लोगों ने उसे पददलित करना आरम्भ कर दिया देहरादून, हरद्वार, हल्द्वानी, जैसे शहर पहले ही मैदानी चतुरों से भरे पड़े थे और सदियों से ये लोग पहाड़ को लूटते रहे हैं। अब हमारे अपने लोग यानि पहाड़ के नेता लोग मैदान के बहुत से छेत्रों को उत्तराखंड में मिलाने की बात कर रहे हैं, जिससे मैदान के व्यापारियों को लाभ पहुँचाया जा सके। अभी तक जिनके शोषण ने पहाड़ को निचोड़ डाला है अब हमारे पहाड़ ने नेता उत्तराखंड को फिर से मैदानियों को लूटने के लिए सौंप देना चाहते हैं। उत्तराखंड के लिए कोई स्पष्ट नीति हमारे नेताओं के पास नहीं है वो एक अंधी गली में भटक रहे हैं, पहले सव्मी नित्यानंद फिर भगत सिंह कोश्यारी, और अनुभवी नारायण दत्त तिवारी जिन्होंने राज्य को बरबादी के लालची रस्ते पर ला खड़ा किया, सबको खुश करने के चक्कर में ऐसी परंपरा दल दी जिससे जो भी आयगा उसे ही उस परिपाटी से रूबरू होना पड़ेगा, जब भुवन चंद खंडूरी ने सत्ता संभाली तो उन्हें तिवारी जी के बोये हुए बीजों के पेड़ मिले जिन्हें उखड पाना उनके लिए आसन नहीं हो सका उनहोंने प्रयास किये तो उनकी ही पार्टी के लोगों ने उन्हें बहार का रास्ता दिखा दिया, क्योंकि उन्हें वो नहीं मिला जो तिवारीजी नेउन्हें दिया था । अब तो लूट मार होनी थी सो नेताओं को खंडूरी जी बिलकुल नहीं भाये , सत्ता परिवर्तन हुआ माननीय निशंक्जी ने सत्ता सम्हाली इनको पता था की नेता क्या चाहते हैं, उन्हें भी जनता और पहाड़ से कोई लेना देना न था उन्होंने वाही किया जो नेता चाहते हैं, नेता अपना घर भरना चाहते हैं जनता और राज्य जाए भाद्द में, अब राज्य का आम आदमी सदमें में है। वो समझ नहीं पा रहा है की ये क्या हो रहा है, सहज और सरल पहाड़ का आदमी अब अचानक चतुर कैसे हो गया है, ये चतुर हो गया है या फिर ये लोग मैदानियों के हाथों की कठपुतलियां बन गए हैं ? क्या हमारे नेता पहाड़ को भी बेचकर खा जायेंगे ? बल्कि खा ही रहे हैं , आन्दोलनकारी आशार्यजनक रूप से इनके साथ हो गए हैं, अब राज्य का क्या होगा? जागो, राज्य के पहरेदारों जागो अब समय नहीं है सोने का, इस राज्य को बचा लो , पहाड़ को बचा लो , पहाड़ बचेगा तो ही देश बचेगा, तो ही संसार बचेगा।
मनोज अनुरागी